आखिरी मुशायरा
आखिरी मुशायरा: "
मार्च २००९ में मुशायरा और कवि सम्मलेन करवाया गया था. २०१० में मंत्रालय की अनुमति नहीं मिली.
इस साल मार्च , २०११ में अनवर अफ़ाकी साहब यहाँ -वहाँ खूब भाग दौड कर रहे थे कि किसी तरह इस साल अनुमति मिल जाये .मैंने दिगंबर नासवा जी को भी निमंत्रण भेजा था कि वे भी भाग लें परंतु उन्हें उस तारीख को शहर से बाहर जाना था.
अलेन में मुशायरा और कवि सम्मलेन करवाने की शुरुआत ग्यारह साल पहले इंडियन सोशल सेण्टर में अब्दुल सत्तार शेफ़्ता जी ने की थी. मुझे भी इस मंच पर पहला अवसर देने का श्रेय उन्हीं को जाता है.शेफ़्ता साहब पिछले कुछ सालों से अबू धाबी शिफ्ट हो गए थे .
तय दिन के ठीक दो दिन पहले आयोजन के लिए अनुमति मिल गयी.२४ तारीख को शाम सब एकत्र हुए.कम समय के नोटिस पर भी हर साल से कहीं अधिक भीड़ इस बार दिखाई दी.९ बजे से १२ बजे तक की अनुमति थी तो १० बजे किसी तरह कार्यक्रम शुरू हुआ. स्वागत भाषण के बाद कवियों /शायरों का सम्मान [रवायत के मुताबिक प्रोग्राम के आखिर में होता है वह इस बार पहले ही कर दिया गया]शेफ़्ता साहब को सेंटर में दी गयी उनकी सेवाओं के लिए खास सम्मान दिया गया.सांस्कृतिक और साहित्यिक गतिविधियों में उनकी भागीदारी सराही गयी.
प्रोग्राम रात १० ३० बजे शुरू हुआ ..पहले स्थानीय [अलेन के ]कवियों को आमंत्रित किया गया उसके बाद दुबई /शारजाह/अबू धाबी के कवियों को पढ़ना था.खुद अनवर साहब जो प्रोग्राम के संचालक थे उन्होंने अपना कलाम पढ़ा.फिर अब्दुल रज्जाक साहब ने तरन्नुम में अपनी गज़ल सुनायी.अब जैसे ही शेफ़्ता जी को आवाज़ दी गयी..हाल तालियों से गूंज उठा.उनकी लोकप्रियता हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी दोनों ही सुनने वालों में खूब थी.उन्होंने अपनी ताज़ा ग़ज़ल सुनायी..माहौल बहुत खुशनुमा हो गया था.
उनके बाद मुझे मंच पर पढ़ने के लिए बुलाया गया .मैं ने अपनी एक नज़्म [फसाना-ए-शब-ए-ग़म'
]पढ़ी ,नज़्म की अंतिम पंक्ति थी 'आगोश में तुझको ,कज़ा के ही
अब तो चैन आएगा!'
जिससे सुनने के बाद एक अलग सा वातावरण हो गया..जहाँ ' कज़ा '[मौत] की बात आये वहाँ ऐसा ही होता है ..
मुझ से श्रोता गण गीत -या गज़ल तरन्नुम में सुनाने की फरमाईश करने लगे ..मैं ने अपना गीत 'बरखा और बाँवरी 'शुरू ही किया था ..एक पंक्ति के बाद माईक में डिस्टर्बेंस होने लगी .शेफ़्ता साहब उठे और संचालक का माईक ले कर मेरे माईक से बदल दिया ..फिर भी एक पंक्ति के बाद गडबड हुई तब वह साउंड अरेंजेर/ मिक्सर के पास बैठे व्यक्ति के पास गए ..उससे दूसरा माईक लिया और मुझे दिया मैं ने पूछा...अब ठीक है???उन्होंने कहा...हाँ ,अब ठीक है ,आप पढ़िये .
वे मुड़े और गिर पड़े , एकदम मेरे पाँव के पास मेरे पीछे...मुझे लगा कि शायद मंच के कारपेट में पाँव उलझ गया होगा.परंतु वे मंच पर बेहोश पड़े थे.एक अजीब सा सुकून था उनके खामोश चेहरे पर .मुंह पर पानी के छींटे दिए गए मगर कोई हरकत नहीं हुई.
सुनने वालों में इत्तेफाक से अलेन के सब से बड़े सरकारी हस्पताल के सीनियर कार्डियोलोजिस्ट [सलाहकार] डॉ.सिद्दीकी भी बैठे थे.उनके साथ एक और बड़े डॉक्टर थे .वे दोनों तुरंत मंच पर आये ..उन्होंने कृत्रिम साँस और कार्डिएक मसाज दिया , हस्पताल शिफ्ट किया गया.वेंटिलेटर पर रखा. उन्हें होश नहीं आया था.
यह सारा मंजर मेरी आँखों के सामने हो रहा था और मैं कुछ समझ नहीं पा रही थी.हम सभी प्रार्थना कर रहे थे कि उन्हें होश आ जाये.लेकिन नियति को कुछ और ही मंज़ूर था ..
शुक्रवार के दिन सुबह के २ बजे उनके परलोक सिधार जाने का दुखद समाचार मिला.उनकी मृत्यु के एक हफ्ते बाद अब्दुल रज़्ज़ाक साहब का दिल के दौरे से इंतकाल हो गया.इन्होंने उसी दिन दूसरे नंबर पर ग़ज़ल पढ़ी थी.ये दोनों ही बहुत अच्छे दोस्त भी थे.
आज तक वह सारा मंज़र मेरे ज़हन से हटता नहीं है.सच ही है ,समय कब किस का हुआ?
48 वर्षीय शेफ़्ता साहब की लोकप्रियता इतनी थी कि उनके अंतिम दर्शन के लिए हस्पताल में रिकॉर्ड लोग जमा हुए थे.सेंटर में उनके लिए शोक सभा रखी गयी. मैं नहीं जा सकी क्योंकि मैं इंडिया गयी हुई थी.
शेफ़्ता साहब २३ सालों से यू ए ई में सपरिवार रहते थे.वे स्कूल में गणित और अंग्रेज़ी पढाया करते थे .
हिंदी -उर्दू में लिखने वाले एक शायर के रूप में उनकी बहुत लोकप्रियता थी.अपने अच्छे स्वभाव के कारण भी वे लोगों के प्रिय हो जाते थे.रात -बिरात किसी भी समय शेफ़्ता साहब को काम बता दीजीये वे दौड -धूप कर के अपने सारे प्रयास लगा देते थे.
उनके मधुर स्वभाव और हर किसी की मदद करने की आदत को आज भी याद किया जाता है.
उस मुशायरे की विडियो क्लिप नहीं मिल सकी, न ही तस्वीरें..चूँकि उस दिन शाम को मुशायरे में जाने का मेरा बिलकुल मन नहीं था इसलिए मैं अपना केमरा साथ नहीं ले कर गयी थी.
अपनी आँखों के सामने कुछेक पलों में सब कुछ घटते देखा और लगा कि वक्त के आगे हम सभी बेबस हैं.
शेफ़्ता साहब की यह ग़ज़ल पढ़िये जो उन्होंने उस आखिरी मुशायरे में पढ़ी थी.यह ग़ज़ल मुझे उर्दू में लिखी मिली थी जिसे ग़ज़लकार दानिश [मुफलिस ] जी ने देवनागरी स्क्रिप्ट में बदल कर दिया है.साथ ही उन्होंने उर्दू के शब्दों के अर्थ भी दिए हैं.दानिश जी का दिल से आभार प्रकट करती हूँ.
शेफ़्ता साहब आप जहाँ भी हैं वहाँ खुश रहिये.ईश्वर आप की आत्मा को शांति दे.आप को हमारी भावपूर्ण श्रद्धांजलि ...
इस साल मार्च , २०११ में अनवर अफ़ाकी साहब यहाँ -वहाँ खूब भाग दौड कर रहे थे कि किसी तरह इस साल अनुमति मिल जाये .मैंने दिगंबर नासवा जी को भी निमंत्रण भेजा था कि वे भी भाग लें परंतु उन्हें उस तारीख को शहर से बाहर जाना था.
अलेन में मुशायरा और कवि सम्मलेन करवाने की शुरुआत ग्यारह साल पहले इंडियन सोशल सेण्टर में अब्दुल सत्तार शेफ़्ता जी ने की थी. मुझे भी इस मंच पर पहला अवसर देने का श्रेय उन्हीं को जाता है.शेफ़्ता साहब पिछले कुछ सालों से अबू धाबी शिफ्ट हो गए थे .
तय दिन के ठीक दो दिन पहले आयोजन के लिए अनुमति मिल गयी.२४ तारीख को शाम सब एकत्र हुए.कम समय के नोटिस पर भी हर साल से कहीं अधिक भीड़ इस बार दिखाई दी.९ बजे से १२ बजे तक की अनुमति थी तो १० बजे किसी तरह कार्यक्रम शुरू हुआ. स्वागत भाषण के बाद कवियों /शायरों का सम्मान [रवायत के मुताबिक प्रोग्राम के आखिर में होता है वह इस बार पहले ही कर दिया गया]शेफ़्ता साहब को सेंटर में दी गयी उनकी सेवाओं के लिए खास सम्मान दिया गया.सांस्कृतिक और साहित्यिक गतिविधियों में उनकी भागीदारी सराही गयी.
प्रोग्राम रात १० ३० बजे शुरू हुआ ..पहले स्थानीय [अलेन के ]कवियों को आमंत्रित किया गया उसके बाद दुबई /शारजाह/अबू धाबी के कवियों को पढ़ना था.खुद अनवर साहब जो प्रोग्राम के संचालक थे उन्होंने अपना कलाम पढ़ा.फिर अब्दुल रज्जाक साहब ने तरन्नुम में अपनी गज़ल सुनायी.अब जैसे ही शेफ़्ता जी को आवाज़ दी गयी..हाल तालियों से गूंज उठा.उनकी लोकप्रियता हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी दोनों ही सुनने वालों में खूब थी.उन्होंने अपनी ताज़ा ग़ज़ल सुनायी..माहौल बहुत खुशनुमा हो गया था.
उनके बाद मुझे मंच पर पढ़ने के लिए बुलाया गया .मैं ने अपनी एक नज़्म [फसाना-ए-शब-ए-ग़म'
]पढ़ी ,नज़्म की अंतिम पंक्ति थी 'आगोश में तुझको ,कज़ा के ही
अब तो चैन आएगा!'
जिससे सुनने के बाद एक अलग सा वातावरण हो गया..जहाँ ' कज़ा '[मौत] की बात आये वहाँ ऐसा ही होता है ..
मुझ से श्रोता गण गीत -या गज़ल तरन्नुम में सुनाने की फरमाईश करने लगे ..मैं ने अपना गीत 'बरखा और बाँवरी 'शुरू ही किया था ..एक पंक्ति के बाद माईक में डिस्टर्बेंस होने लगी .शेफ़्ता साहब उठे और संचालक का माईक ले कर मेरे माईक से बदल दिया ..फिर भी एक पंक्ति के बाद गडबड हुई तब वह साउंड अरेंजेर/ मिक्सर के पास बैठे व्यक्ति के पास गए ..उससे दूसरा माईक लिया और मुझे दिया मैं ने पूछा...अब ठीक है???उन्होंने कहा...हाँ ,अब ठीक है ,आप पढ़िये .
वे मुड़े और गिर पड़े , एकदम मेरे पाँव के पास मेरे पीछे...मुझे लगा कि शायद मंच के कारपेट में पाँव उलझ गया होगा.परंतु वे मंच पर बेहोश पड़े थे.एक अजीब सा सुकून था उनके खामोश चेहरे पर .मुंह पर पानी के छींटे दिए गए मगर कोई हरकत नहीं हुई.
सुनने वालों में इत्तेफाक से अलेन के सब से बड़े सरकारी हस्पताल के सीनियर कार्डियोलोजिस्ट [सलाहकार] डॉ.सिद्दीकी भी बैठे थे.उनके साथ एक और बड़े डॉक्टर थे .वे दोनों तुरंत मंच पर आये ..उन्होंने कृत्रिम साँस और कार्डिएक मसाज दिया , हस्पताल शिफ्ट किया गया.वेंटिलेटर पर रखा. उन्हें होश नहीं आया था.
यह सारा मंजर मेरी आँखों के सामने हो रहा था और मैं कुछ समझ नहीं पा रही थी.हम सभी प्रार्थना कर रहे थे कि उन्हें होश आ जाये.लेकिन नियति को कुछ और ही मंज़ूर था ..
शुक्रवार के दिन सुबह के २ बजे उनके परलोक सिधार जाने का दुखद समाचार मिला.उनकी मृत्यु के एक हफ्ते बाद अब्दुल रज़्ज़ाक साहब का दिल के दौरे से इंतकाल हो गया.इन्होंने उसी दिन दूसरे नंबर पर ग़ज़ल पढ़ी थी.ये दोनों ही बहुत अच्छे दोस्त भी थे.
आज तक वह सारा मंज़र मेरे ज़हन से हटता नहीं है.सच ही है ,समय कब किस का हुआ?
48 वर्षीय शेफ़्ता साहब की लोकप्रियता इतनी थी कि उनके अंतिम दर्शन के लिए हस्पताल में रिकॉर्ड लोग जमा हुए थे.सेंटर में उनके लिए शोक सभा रखी गयी. मैं नहीं जा सकी क्योंकि मैं इंडिया गयी हुई थी.
शेफ़्ता साहब २३ सालों से यू ए ई में सपरिवार रहते थे.वे स्कूल में गणित और अंग्रेज़ी पढाया करते थे .
हिंदी -उर्दू में लिखने वाले एक शायर के रूप में उनकी बहुत लोकप्रियता थी.अपने अच्छे स्वभाव के कारण भी वे लोगों के प्रिय हो जाते थे.रात -बिरात किसी भी समय शेफ़्ता साहब को काम बता दीजीये वे दौड -धूप कर के अपने सारे प्रयास लगा देते थे.
उनके मधुर स्वभाव और हर किसी की मदद करने की आदत को आज भी याद किया जाता है.
उस मुशायरे की विडियो क्लिप नहीं मिल सकी, न ही तस्वीरें..चूँकि उस दिन शाम को मुशायरे में जाने का मेरा बिलकुल मन नहीं था इसलिए मैं अपना केमरा साथ नहीं ले कर गयी थी.
अपनी आँखों के सामने कुछेक पलों में सब कुछ घटते देखा और लगा कि वक्त के आगे हम सभी बेबस हैं.
शेफ़्ता साहब की यह ग़ज़ल पढ़िये जो उन्होंने उस आखिरी मुशायरे में पढ़ी थी.यह ग़ज़ल मुझे उर्दू में लिखी मिली थी जिसे ग़ज़लकार दानिश [मुफलिस ] जी ने देवनागरी स्क्रिप्ट में बदल कर दिया है.साथ ही उन्होंने उर्दू के शब्दों के अर्थ भी दिए हैं.दानिश जी का दिल से आभार प्रकट करती हूँ.
शेफ़्ता साहब आप जहाँ भी हैं वहाँ खुश रहिये.ईश्वर आप की आत्मा को शांति दे.आप को हमारी भावपूर्ण श्रद्धांजलि ...
ग़ज़ल तेरा हद से गुज़र जाना, शरारत उस को कहते हैं मेरा हद से गुज़र जाना, बगावत इस को कहते हैं तेरा गिर कर सँभल जाना ज़हानत उस को कहते हैं मेरा गिर कर फिसल जाना हिमाक़त इस को कहते हैं तुम्हारी तंज़िया झिडकी जराफत उस को कहते हैं मेरा गुस्ताखियाँ सहना शराफत इसको कहते हैं |