मकर संक्रांति का वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक महत्व
मकर संक्रांति किसे कहते हैं, इसका भौगोलिक, सांस्कृतिक अथवा आध्यात्मिक महत्व क्या है, इत्यादि प्रश्नों का समाधान ज्योतिषशास्त्र के सिद्धांत ग्रंथों में विस्तार से प्राप्त होता है। सृष्टि के आरंभ में परम पुरुष नारायण अपनी योगमाया से प्रकृति में प्रवेश कर सर्वप्रथम जलमयी सृष्टि में कारणवारि का आधान करते है, जिसे वेदों ने हिरण्यगर्भ कहा है। सर्वप्रथम होने के कारण आदित्य तथा इन्हीं आदित्य से चराचर जीवों की उत्पत्ति होने के कारण इन्हें सूर्य कहा गया है। सूर्य से सोम रूप चंद्रमा की उत्पत्ति, पुन: उसके तेज से पृथ्वी, पृथ्वी से मंगल, सोम से बुध,आकाश से बृहस्पति, जल से शुक्र तथा वायु से शनि को उत्पन्न करके, ब्रह्म ने मन:कल्पित वृत्त को बारह राशियों तथा सत्ताइस नक्षत्रों में विभक्त किया। इसके पश्चात् श्रेष्ठ, मध्यम और अधम स्रोतों से स8व,रज, तम विभेदात्मक प्रकृति का निर्माण करके देवता, मनुष्य, राक्षस आदि चराचर विश्व की रचना की, गुण और कर्म के अनुसार सृष्टि रचकर देशकाल का विभाग किया। उसी प्रकार ब्रह्माण्ड का निर्माण करके उसमें समस्त लोक स्थापित किए। इसी ब्रह्माण्ड की परिधि को आकाश की कक्षा कहते है। इसके भीतर नक्षत्र, राशियां, ग्रह तथा उपग्रह आदि भ्रमण करते रहते है। इसमें समस्त सिद्ध, विद्याधर, यक्ष, गंधर्व, चारण, राक्षस एवं असंख्य प्राणी सदैव भ्रमण करते रहते है। इसी ब्रह्माण्ड के मध्य में यह पृथ्वी ब्रह्म की धारणात्मिकाशक्ति के बल पर शून्य में स्थित होकर सतत भ्रमणशील है। इस पृथ्वी के मध्य को सुमेरु कहते है। समेरु के ऊपर की ओर इन्द्रादि देवता तथा असुर स्थित हैं तथा इसके चारों ओर महासागर पृथ्वी की मेखला की तरह स्थित है। यद्यपि पृथ्वी की गति से राशियों में परिवर्तन दिखाई देता है तथापि लोक में उसे उपचार मात्र से सूर्य का संक्रमण कहा जाता है। जब सूर्य विषुवत वृत्त पर आता है तब इन स्थानों के ठीक ऊपर होता है। इसी सुमेरु के दोनों ओर उत्तरी एवं दक्षिणी धु्रव स्थित है। सूर्य जब देव भाग में अर्थात् उत्तरी गोलार्ध में रहता है तब मेष के आदि स्थान में देवताओं को उसका प्रथम दर्शन होता है और जब दक्षिणी गोलार्ध में रहता है तब तुला के आदि में वह असुरों को दिखाई पड़ता है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार जब वर्तमान राशि का त्याग करके सूर्य अगली राशि में प्रवेश करते है तो उसी काल को संक्रांति कहते है। अतएव संक्रांति प्रत्येक मास होती है। राशियां कुल बारह है, अत: सूर्य की संक्रांति भी बारह होती है। इन संक्रांतियों को ऋषियों ने चार भागों में विभक्त किया है-अयनी, विषुवी, षडशीतिमुखी और विष्णुपदी संक्रांति। जब सूर्य मिथुन राशि से कर्क राशि में तथा धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता तो उसे अयनी संक्रांति कहते है। इसी प्रकार मेष,तुला राशि पर सूर्य के संक्रमण को विषुवी संक्रांति, मिथुन, कन्या, धनु और मीन राशि पर सूर्य के संक्रमण को षडशीतिमुखी तथा वृष, सिंह, वृश्चिक एवं कुंभ राशियों पर सूर्य के संक्रमण को विष्णुपदी संक्रांति की संज्ञा दी गई है। अब प्रश्न यह उठता है कि संक्रांतियां तो बारह होती है फिर मकर संक्रांति को ही इतना महत्व क्यों दिया जाता है? इसका कारण यह है कि भारतवर्ष में प्राचीन काल से वर्षारंभ का दिन मकर संक्रांति से ही माना गया था। वर्षारंभ के साथ ही हजारों वर्ष की पुरानी भारतीय संस्कृति का इतिहास भी इस मकर संक्रांति से जुड़ा हुआ है। वैदिक काल में जब राशियां अज्ञात थीं, दिनों के नाम भी नहीं रखे गए थे, दिनों के संबंध में निश्चित किए जाने वाले वर्ष के राजा और मंत्री भी नहीं होते थे, उस समय हमारे ऋषियों, महर्षियों ने नक्षत्रों से ही ग्रहों के शुभाशुभ फलों की गणना की थी। उन दिनों भारतीयों के संपूर्ण व्यवहार तिथियों पर ही आश्रित थे। आज हम जिसे मकर संक्रांति कहते है, उस समय उसे युग या वर्ष का आदि कहा जाता था। आज से लगभग पैंतीस सौ वर्ष पूर्व वेदांगज्योतिष में महर्षि लगध ने कहा कि जब चन्द्रमा और सूर्य आकाश में एक साथ धनिष्ठा नक्षत्र पर होते है तब युग या संवत्सर का आदि माघ मास तथा उत्तरायण का आरंभ होता है। धनिष्ठा नक्षत्र पर सूर्य 6/7 फरवरी को होता है, तथा माघ की अमावस्या को चन्द्रमा धनिष्ठा नक्षत्र पर रहता है। यह भी तिथियों और नक्षत्रों के संबंध से स्पष्ट है। फिर उत्तरायण का आरम्भ भी उसी नक्षत्र पर हो, तो सौरमाघमास का आरम्भ भी निश्चित ही उसी दिन होगा।
यह बात वेदांग ज्योतिष में वर्णित माघ की अमावस्या को धनिष्ठा नक्षत्र पर होने वाले उत्तरायण में ही सत्य होगी, क्योंकि इसी स्थिति में सौर और चान्द्र दोनों मासों से माघ का सम्बन्ध शास्त्रसम्मत होगा। वैदिक साहित्य में उत्तरायण दिन अत्यंत पवित्र माना गया है। उत्तरायण का अर्थ है-उत्तर की ओर चलना। जब सूर्य क्षितिज वृत्त में ही अपनी दक्षिणी सीमा समाप्त करके, उत्तर की ओर बढ़ने लगता है तो उसे हम उत्तरायण कहते हैं। इसी प्रकार क्षितिज वृत्त में ही जब सूर्य उत्तर जाने की चरम सीमा पर पहुंच कर दक्षिण की ओर बढ़ने लगता है, तो उसे हम दक्षिणायन कहते है। जब सूर्य उत्तरायण के होते है तब दिन बड़ा होने लगता है और जब दक्षिणायन में प्रवेश करते है तब दिन छोटा होने लगता है। ये अयन छह-छह महीने के अंतर पर होते है। उत्तरायण में दिन की अधिकता के कारण सूर्य का प्रकाश पृथ्वीवासियों को अधिक प्राप्त होता है। वृद्धि को शुभ मानने की परम्परा भारतीयों की सदैव से रही है। कृष्णपक्ष एवं शुक्लपक्ष दोनों में चंद्रमा का प्रकाश पृथ्वीवासियों को समान रूप से प्राप्त होता है, तथापि शुक्लपक्ष को वन्द्य माना गया है। इसका कारण यह है कि शुक्लपक्ष में चन्द्रमा बढ़ता हुआ पूर्णता की ओर जाता है और पूर्ण प्रकाश देता है। ठीक यही बात अयन के संदर्भ में भी प्रत्यक्ष है। उत्तरायण से दिन बढ़ना प्रारम्भ होकर अन्त में पूर्णता को प्राप्त होता है, जबकि दक्षिणायन में घटता हुआ अत्यंत छोटा हो जाता है।
अत: प्रकाश की न्यूनाधिकता के कारण ही दक्षिणायन की अपेक्षा उत्तरायन को अधिक महत्व दिया गया है। सायन गणना के अनुसार वर्तमान में 22 दिसंबर को सूर्य उत्तरायन और 22 जून को दक्षिणायन होता है, जबकि निरयन गणना के अनुसार सूर्य 14/15 जनवरी को उत्तरायन तथा 16 जुलाई को दक्षिणायन होता है। किंतु सायन गणना ही प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती है। जिसके अनुसार 22 दिसंबर को सूर्य क्षितिज वृत्त में अपने दक्षिण जाने की सीमा समाप्त करके उत्तर की ओर बढ़ना आरंभ करता है और 22 जून को अपने उत्तर जाने की सीमा समाप्त करके दक्षिण की ओर बढ़ना आरम्भ करता है। इसलिए आज का उत्तरायण 22 दिसंबर से आरम्भ होकर 22 जून को समाप्त होता है। किंतु धर्मशास्त्र निरयन परम्परा को ही मह8व देते है और उसी के अनुसार सभी संक्रान्तियों के पुण्य काल का निर्धारण करते है। अतएव प्रत्येक सनातनधर्मी धर्मशास्त्र एवं ज्योतिषशास्त्र के संयुक्त आदेशों का पालन ही अपना प्रधान कर्त्तव्य मानता है। मकर संक्रान्ति का महत्व न केवल भारतवर्ष में अपितु विश्व के अन्यान्य देशों में खिचड़ी रूप में प्रसिद्ध है। इस दिन लोग खाद्यान्न विशेषकर तिल, गुड़, मूंग, खिचड़ी आदि पदार्थो का सेवन करते है। इस समय अत्यधिक शीत भारतवर्ष में पड़ती है। तिल के सेवन से शीत से रक्षा होती है। अतएव तिल का महत्व अधिक दिया गया है। तिलस्नायी तिलोद्वर्त्ती तिलहोमी तिलोदकी। तिलभुक् तिलदाता च षट्तिला: पापनाशना:॥
अर्थात् तिल मिश्रित जल से स्नान, तिल के तेल द्वारा शरीर में मालिश, तिल से ही यज्ञ में आहुति, तिल मिश्रित जल का पान, तिल का भोजन इनके प्रयोग से मकर संक्रांति का पुण्य फल प्राप्त होता है और पाप नष्ट हो जाते है। इस समय बहती हुई नदी में स्नान पूर्णकारी होता है। ऐसी मान्यता है कि नदी के जल में स्नान से सम्पूर्ण पाप तो नष्ट होते है साथ ही धन, वैभव और रूप, सौन्दर्य आदि की वृद्धि हो जाती है। ज्योतिषशास्त्र के ग्रन्थों में वर्णन है कि सूर्य के संक्रमण काल में जो मनुष्य स्नान नही करता वह सात जन्मों तक रोगी, निर्धन तथा दु:ख भोगता रहता है। इस दिन कंबल का दान करने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।
डा. गिरिजा शङ्कर शास्त्री